शनिवार, 23 अप्रैल 2011

गलत क्या रहा ........




वह समंदर था..
अथाह...अनन्त...
जिन्दगी तलाशती रही..खुद को .
ताउम्र 
सीखती रही तैरना ..डूबते उतराते..
हंसती रही, 
तट पर खडी नौकाये 
"आवाज तो दो" के अंदाज में ..
मैंने नहीं देखा उन्हें..ज़ंजीर से बंधे ..
न ही पुकारा कभी
एक कोशिश....
किनारा कहीं तो होगा न.....

काफी होती है, विध्वंस के लिए
एक लहर,
मैंने नहीं बनाये..किनारे पर घरोंदे,
न ही लिखा..रेत पर कोई नाम ,
फिसल जायेंगे सोचकर नहीं भरे
अंजुली में सपने......

कहा था, अभावों के रेगिस्तान  ने,
"महज बुत है वहां "...तराशे हुए  से,
मैंने नहीं मांगी.
सीढ़ियों पर बैठकर
कोई मन्नत .................

हर कोई बिखर जाता है..
अपनो से टूटकर ....
मैंने नहीं तोडा 
वो खिलखिलाता गुलाब ...

फिर भी हैरान हूँ
देख रही हूँ ..
सफ़र के इस मुकाम पर
चुपचाप सिसकता एक सिफ़र...
उपलब्धियों का शेष था शायद...
या मेरा ही कोई अख्स..
कौन जाने.........

लेकिन कोई यूँ ही तो नहीं रोता न...
कहीं कुछ तो था जो टूटा,
कहीं कोई तो था, जो छूटा..
एक अहसास जो सालता रहा
हर पल 
एक अनाम अंतर्द्वंद 
"गलत क्या रहा"
मेरे अतीत,वर्तमान से
भविष्य तक उलीचता रहा...

चीख कर पूछा था...गुजरते लम्हों से
रुको...जवाब दो...गलत क्या रहा?

निशब्द हंसा था....निस्तब्ध अंतराल
हटो...रास्ता छोडो...
ढलान पर कुछ नहीं रुकता....
न मै...न तुम...न समय....
कहकर....
उम्र का सफ़र चलता रहा
  अंतर्द्वंद  भटकता रहा.....दिशाहीन ...

 वह समंदर था...अनवरत बहता रहा....
समय का समंदर
अथाह...अनन्त...अनुत्तरित. .........
  



कल रत से जापान की विभीषिका देख सम्पूर्ण  विश्व सन्नाटे में है. याद आई मुझे गणतंत्र दिवस, देवठान बुद्धपूर्निमा के दिन अलग अलग स्थानों पर आये भूकंप की विनाश लीलाए. उन्ही दिनों पर्यावरण दिवस पर लिखी एक रचना....

             एक शाश्वत सत्य 

सिर्फ एक पल
शायद एक पल  भी नहीं  
अभी हुई भी नहीं थी सहर 
बरपा ...धरा पर 
अकल्पित सा कहर
बदल  गया
देखते ही देखते
ईंट पथ्थरों में
सारा शहर ....

भयानक सन्नाटों को तोड़ती
खौफनाक चीखें 
तड़पते जिस्म बिलखती आँखें
हर आंसू तलाशता 
एक ही उत्तर
क्या हुआ .क्यों . हुआ
  कैसे  हुआ ये सब??????

टूटती है,
एक के बाद एक
सांसो की डोर ,
दहल जाता है पोर पोर
एक विनम्र श्र्ध्हांजलि के लिए
रो  पड़ती है
शीश झुकाकर ...... समूची कायनात

हर शख्स 
अपने आप में सहमा सिमटा सा
कब  ख़त्म हो जाय 
कौन जाने !
इस पल से उस पल का वास्ता,

 दिखला गया
वह एक पल 
एक शाश्वत सत्य,
क़ि जीवन नश्वर है
और छोड़ गया
आत्ममंथन के लिए
अनुत्तरित से कुछ प्रश्न 

सच तो है........
हम कब करते है
आत्ममंथन ,
प्रकृति क़ी खातिर   
कोई सहज
  या गंभीर चिंतन 
या क़ि मंत्रनाएं
क़ि प्रकृति माँ है
सहती आई है
अपनी छाती पर 
अनगिनत यंत्रनाएं.....

स्वार्थी बेटों क़ी 
क्षणभंगुर महत्वाकांषाओं क़ी
खातिर
लुटती है अपना सर्वस्व ,
और बदले में
कुछ नहीं मांगती 
एक आदर्श माँ क़ी तरह .

शायद इसीलिए
जब टूटती है,
तब नहीं देखती देश
चीन है, जापान है, या हिंदुस्तान 
नहीं देखती शहर 
जबलपुर है, लातूर है, या गढ़वाल 
नहीं जानती 
कहाँ हिन्दू है कहाँ मुसलमान
नहीं सोचती
महूरत,
कब पूर्णिमा है, कब देवठान..

 प्रकृति माँ है
कितनी चोटे सहे
कब तक सहे...
कभी तो चरमराएगी,
कभी तो रोएगी,
कभी टूटेगी.......

फिर कैसा शिकवा
कैसे प्रश्न
 कैसा गिला...?
जो बोया हमने
वही तो काटाsssss
    
 



   

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

                       एक अनवरत .......

सो गया ,
थकान से बेहाल सूरज
जागता रहा चाँद सारी रात..
उड़ चला 
समय का पंखी
क्षितिज को तलाशता.....

लम्हा दर लम्हा
यूँ ही सुबह से शाम होता रहा
मेरे अंतस में एक शून्य
न जाए कब से 
क्या खाकर 
पलता रहा

मेरे ही लहू से
सिंचित
अपनी ऑक्टोपस सी 
भुजाएं फ़ैलाता
शून्य से बरगद बनता रहा
 पूछता रहा
मुक्ति की परिभाषा

कब किस मोड़ पर शुरू हुआ 
अपने आपसे 
एक अघोषित 
मौन युद्ध 
कौन जाने.....

कदम लौटे ही थे
की सागर चीखा
का  य र  .........हारो मत
जरूरी नहीं, 
मोती सभीको मिले
एक अनवरत तलाश है जिंदगी
हो सकता है,
सवाल 
एक और गोते का हो.......

आँख भर आई
अनुभव की
कुलबुलाया
एक निशब्द मौन
क्या कह दिया सागर ने
आखिर क्यूँ?........

आसान नहीं रही कभी 
छोटे से वजूद और 
सागर की
अतल गहराइयाँ ......
जहाँ 
मुक्ति की छट पटा हट में
 हर गोते ने जिया है
तलाश का 
अनवरत संघर्ष.....

देखा है
कदम कदम पर 
एक पूरी  जमात होती है
मगरमच्छों की,
समूचा निगल जाने को आतुर
जाना है 
कितनी ही तेज हो 
दौड़ की रफ़्तार 
दूर ही रहता है क्षितिज
समूचे पंख फैलाकर भी 
नही होता मुठ्ठी में
कभी
कोई टुकड़ा आसमान.....

काश बोल पाती ,
अनुभव की आँख
की तलाश 
अनथक रहे न रहे,
मोती कहीं मिले न मिले
तोड़ कर रख देता है,
अंतस में किसी शून्य का
बरगद बन जाना...........

काश सुन पता सागर
कि नहीं चाहिए
मुक्ति की ऐसी परिभाषा
जिसका आसमान
खालीपन से लबालब हो  और 
छटपटाता रहे,
एक अंतहीन संघर्ष
ताउम्र .........
एक और गोते के सवाल पर.............
               

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

कवि कलम और जनसंख्या

इक्कीसवीं सदी तक
आते आते
इकाई से अरबों /खरबों पर पहुंची
जनसँख्या
खटकने लगी है/नक़्शे की आँखों में,...........

ग्राफ में बढ़ता आंकड़ों का प्रतिशत
उधेड़ देता है
सीमाओ के बखिये,
गड्ड मड्ड हो जाते है
जोड़ बाकी गुना भाग सब.........

इसी संख्या से
गिनकर, चुनकर, नहीं........
बीनकर निकाले जाते है,
कुछ हीरे ,कुछ कंकड़ ,
बढ़ती हुई जनसँख्या नहीं होते वो........

हीरे,
स्तम्भ होते है नक़्शे के
या फिर / तुरुप के इक्के
बेशकीमतीं होते है कंकड़ भी,
वोटो की गुल्लक, शरणागत,अतिथि
या फिर अमानतें
जिनका सौदा हो सके.........

शेष जनसँख्या में
गुनहगार सा घूमता है/ बेचारा कवि
कलम की चुप्पी को सहलाता,
वह जानता है,
कलम साक्षर है
और निरक्षर भीड़
स्वतंत्रता के लिए
किसी आन्दोलन की
मोहताज़ नहीं होती........

हैरान परशान है
कुछ आंकडें
कवी की बेबसी
और
कलम की चुप्पी/ दोनों पर
चाहते है वे ,कि
कलम जागे,चीखे, उगले आग
इतनी की दहक उठे दसों दिशाए,
सुने_
हाँ...जनसंख्या है हम
लेकिन भीड़ नहीं है....
ताकत है नक़्शे की ,
हमारे ही बदोलत
सरताज बनते है हीरे
और ऐय्याशी करते है कंकड़ भी....

आंकड़े मौन रहें या वाचाल
विचलित नहीं होती
नक्कारखानें की दीवारें,
न ही निगल पाती है ऐसे सच
की नक़्शे में/शिखरों की निरंकुशता
जनसंख्या वृद्धि से
ज्यादा भयावह होती है..

कवि सचमुच बैचेन है
उसे
आकाशीय शक्तियों का नहीं,
कलम के
जागने का इंतजार है.........

मै
उसी भीड़ का एक हिस्सा हूँ
मगर,
तमाशबीन नहीं हूँ
मैंने जला दिए है,
उस परम शक्ति के दर पर
कुछ दिए,
टिमटिमाते ही सही
सूरज के प्रतिनिधि तो है ही.......

उंडेल दी है /सीढ़ियों पर मन्नतें
जुटा लिए है
प्रार्थना के शब्द,
रक्षा करो
हे विश्वनियन्ता ..........
उठाओ हाथ और आशीष दो,
की कवि और
उसकी कलम
जितना जी चाहे , सो ले ,
लेकिन उसकी ये चुप्पी
तूफ़ान से पहले की हो....

मंगलवार, 1 जून 2010

लिटिल चेम्प --- नेत्रहीन बालक दिवाकर के नाम एक पाती

उस दिन
सरगम की दुनिया में,
नन्हें सितारों के बीच,
जीत का परचम उठाये
मैंने
तुम्हे देखा था दिवाकर .....

सुरों में डूबते उतराते उसी गीत की मानिंद
काश
तुम भी देख पते
दिवाकर
मौसम की अदला बदली..........
रंगो की इन्द्रधनुषी छटा,
अपने हमनाम को
आकाश में चमकते....

देख पाते-
पापा की आँखों में
बेटे की मुस्कुराहतो पर
हजारों हज़ार जन्मों के
सार्थक होने का संतोष,
और
माँ के गालों पर
अविरत बहते ...निशब्द आंसू .....

तुम्हें उसी
सार्थक संतोष,निशब्द आंसू और
अगणित आशीषों की
सौगंध है दिवाकर,
कि तुम उन आँखों के लिए
कभी मत रोना
जो औरों के पास है....

क्योंकि जागती आँखों में भी
महसूस करने की
वो ताकत नहीं होती
जो तुम्हारी
सोयी आँखों में है..........

हाँ मुझे यकीन है दिवाकर
तुम बहुत बड़े बनोगे,
इतने कि-
तुम्हारी छाया में
खड़े रहेंगे,
हजारो हज़ार दिवाकर एक दिन,
तुम सुनोगे
अपने ही गीत
देख पाओगे
उनकी आँखों से
मौसम की अदला बदली.......

सोमवार, 31 मई 2010

मैं नदी हूँ

मैं नदी हूँ ..............
अनवरत प्रवाहित
एक नदी
जानती हूँ,
सीमाओं में बहना ,
और
वक्त पड़े तो
चट्टानों को काटकर
अपने रास्ते बना लेना भी..........

मैं समयदर्शिका हूँ ,
याद है मुझे
अपने परिभ्रमण की
दिशाएं ,
और तुम जानते हो
समय रुका नहीं है
कभी
किसी पल के लिए भी..........

मैं चिंगारी हूँ,
आता है मुझे
राख के ढेर में
दबे रहकर भी
अपनी आस्था को बचाए रखना,
आने वाले
किसी भी
ज्वालामुखी की खातिर ...........

मैं कंचन हूँ,
झेला है मैंने
तप कर
कुंदन बनने का संघर्ष ,
कुंदन
यूँ ही नहीं होता,
अनमोल या
चमक से परे ...........

मैं बेटी हूँ
जानती हूँ,
गिरते ही रहेंगे
अनगिनत उल्कापिंड ,
मेरे जन्म से
महाप्रयाण तक के
सफ़र में ,
लेकिन
आशीष है न बुजुर्गों के ,
झेलूंगी सहर्ष ,
जब तक हूँ ...............

मैं स्त्री हूँ ,
जननी भी
समेटे हूँ गर्भ में,
समूची सृष्टि ,
तुम मारना चाहते हो मुझे?
तो मारो....
लेकिन याद रखो -
जितना मुझे मारोगे
उतना खुद खत्म हो जाओगे .............


क्योंकि मैं
सृष्टि हूं,
मैं हूँ .....सृष्टि है .....
.सृष्टि है........तुम हो.....
तुम हो ......मैं हूँ....

मैं नदी हूं...जानती हूं, सीमाओं में बहना....

सुनो अहिल्या

इतिहास साक्षी है अहिल्या ,
बेगुनाह थीं तुम,
सहेज नहीं सकी
स्वयं को ,
अस्मिता पर लगते
ग्रहण से,
बना दी गयीं शिला,
और झेलती रही
बेजुबान होने  का दर्द
आजन्म .....निशब्द ...........

तुम्हे हैरानी होगी अहिल्या
गर मैं कहूँ,
कि तुम शिला बनी,
और तुमने
मुक्ति का इंतजार भी किया.........

हाँ अहिल्या,
शिला बनी तुम
क्योंकि तुम जानती थी
तुम्हारी दुनिया में
कहीं....कोई....रामहै..........
....
सुन सको-
तो सुनो अहिल्या..
इस युग में
आज भी कहीं कहीं,
अहिल्या
इन विषमताओं में
जीती है,
उम्र के
किसी भी मोड़ पर हो,
एक औरत होने का दुःख
सहती है...........

फिर वह
घर में हो, खेत में हो, या कि रेल में,
उम्र में
चार हो ,चौदह हो ,
चौबीस  या चवालीस,
अक्षत कुमारी हो
या सौभाग्य संस्कारित ,
आज भी
अस्मिता के संघर्ष  में
हज़ार हज़ार आंसू रोंती है,
आज भी
अपनी बेगुनाही के साक्ष्य
ढूँढती रह जाती है...................

वह चाहकर भी
शिला नहीं बनती है,
वह मुक्ति का इंतजार
नहीं करती है ,
वह जूझती है
ताउम्र...
खुद से, समाज से,
और शिला होती जा रही इस
समूची सभ्यता से..............

हाँ अहिल्या सुनो....
इक्कीसवी सदी में अहिल्या
शिला नहीं बनती है
इक्कीसवीं सदी में अहिल्या...
मुक्ति का
इंतज़ार नहीं करती है,
वो जानती है,
उसकी दुनिया में
कही... कोई ....राम...नहीं है................