सोमवार, 5 दिसंबर 2011

एक सुबह ...नदी किनारे




  सूरज बहुत खुश था.....
    नदी.....हिलोरें लेती हुई
    और रेत.....
    ओस कणों में नहाई  सी.........

    नहाकर निकली थी तीन पीढियां
    पहली पीढ़ी.......रेत पर
    अपने पैरों के निशाँ छोड़ती हुई
    दूसरी पीढ़ी.....पीछे पीछे
    उन्ही पर
    अपने पदचिन्ह थोपती हुई सी
    और तीसरी.......
    अपनी ही मस्ती में मस्त
    उछलती कूदती
    चीखती, चिल्लाती
    सारे के सारे निशान
    अपने पैरों तले रोंदती
    धूल में उडाती.....मिटाती.....

    सूरज......अचानक उदास दिखा
    नदी....एकदम शांत.....
    और रेत......
    रेत......अस्त...व्यस्त    .................

शनिवार, 16 जुलाई 2011

Lkuksxak/kkjh

सवाल ये नहीं है,
कि तुम गांधारी हो या
इन्साफ की देवी,
सवाल ये है.....
की तुमने
दृष्टि पर पट्टी
क्यों बांधी?

ना .....कुतर्क मत करना.....
बेमानी होंगे मेरे लिए,
क्योंकि मैं
इक्कीसवीं सदी हूँ,
और
यहाँ तक आते आते,
बहुत पीछे छोड़ आई हूँ,
अकर्मण्यता ...,अन्धविश्वास,
पाखंड ,
रुढियों की जकड़ने ,
और भी  बहुत कुछ......

 मानती भी हूँ कि_
दृष्टि के बिना
नितांत असंभव होते है
सृष्टि के नियमन ........

मैं नहीं पूछूंगी
तुमसे
तुम्हारा दृष्टिकोण,
समझती हूँ
बंधक दृष्टी के
कोण नहीं होते.......

काश......
समझ पाती तुम,
कि दृष्टिविहीन  ममत्व
पुत्रमोह को
दुर्योधन बना देता है,
धर्मकांटे को ठेंगा दिखाकर
अन्याय का पलड़ा
अक्सर न्याय पर
भारी पड़ जाता है,
दुर्भाग्य  का ठीकरा
ऊपरवाले  के सर फोड़,
निर्दोष का आंसू
जार जार रोता है,
और
कालचक्र
इन सबका हिसाब
मुझसे मांगता है......
बोलो क्या जवाब दूँ..?.............

मैं इक्कीसवीं सदी,
अपना अक्स
अब
तुम्हारी आँखों में
देखना चाहती हूँ,

इसलिए-
तुम्हे खोलनी होंगी ऑंखें,
हटाने होंगे
दृष्टी पर पड़े आवरण,
और देखने होंगे
तुम्हारी देहरी पर
सिसकती द्रोपदियों के आँसू,
न्याय कि गुहार में फैले
उनके हाथ,
और महसूस करनी होगी
स्वाभिमान से
जीने का हक़ मांगती
एक औरत की पीड़ा........

मुझे यकीन है,
तुम्हारी दिव्य दृष्टी में
अंधकार से प्रतिकार की
क्षमता का वो तेज़........
आज भी जिन्दा है,
बिलकुल वैसा ही..


तब, यदि उनमे
इंसान को वज्र बनाने का
सामर्थ्य था,
तो  आज  इन पाषणों में,
संवेदना प्रवाहन की
क्षमता भी होगी................

क्योंकि  
यह  जीवन का कुरुक्षेत्र है गांधारी,
और मैं...इक्कीसवीं सदी,   
कालचक्र के हर प्रश्न पर निरुत्तर........

 लेकिन-----
 हर कदम पर
तुम्हारे साथ तुम्हारे पीछे
अपने शाश्वत प्रश्न के
किसी शाश्वत उत्तर को तलाशती
कि तुमने
दृष्टि पर पट्टी क्यों बाँधी ?

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

गलत क्या रहा ........




वह समंदर था..
अथाह...अनन्त...
जिन्दगी तलाशती रही..खुद को .
ताउम्र 
सीखती रही तैरना ..डूबते उतराते..
हंसती रही, 
तट पर खडी नौकाये 
"आवाज तो दो" के अंदाज में ..
मैंने नहीं देखा उन्हें..ज़ंजीर से बंधे ..
न ही पुकारा कभी
एक कोशिश....
किनारा कहीं तो होगा न.....

काफी होती है, विध्वंस के लिए
एक लहर,
मैंने नहीं बनाये..किनारे पर घरोंदे,
न ही लिखा..रेत पर कोई नाम ,
फिसल जायेंगे सोचकर नहीं भरे
अंजुली में सपने......

कहा था, अभावों के रेगिस्तान  ने,
"महज बुत है वहां "...तराशे हुए  से,
मैंने नहीं मांगी.
सीढ़ियों पर बैठकर
कोई मन्नत .................

हर कोई बिखर जाता है..
अपनो से टूटकर ....
मैंने नहीं तोडा 
वो खिलखिलाता गुलाब ...

फिर भी हैरान हूँ
देख रही हूँ ..
सफ़र के इस मुकाम पर
चुपचाप सिसकता एक सिफ़र...
उपलब्धियों का शेष था शायद...
या मेरा ही कोई अख्स..
कौन जाने.........

लेकिन कोई यूँ ही तो नहीं रोता न...
कहीं कुछ तो था जो टूटा,
कहीं कोई तो था, जो छूटा..
एक अहसास जो सालता रहा
हर पल 
एक अनाम अंतर्द्वंद 
"गलत क्या रहा"
मेरे अतीत,वर्तमान से
भविष्य तक उलीचता रहा...

चीख कर पूछा था...गुजरते लम्हों से
रुको...जवाब दो...गलत क्या रहा?

निशब्द हंसा था....निस्तब्ध अंतराल
हटो...रास्ता छोडो...
ढलान पर कुछ नहीं रुकता....
न मै...न तुम...न समय....
कहकर....
उम्र का सफ़र चलता रहा
  अंतर्द्वंद  भटकता रहा.....दिशाहीन ...

 वह समंदर था...अनवरत बहता रहा....
समय का समंदर
अथाह...अनन्त...अनुत्तरित. .........
  



कल रत से जापान की विभीषिका देख सम्पूर्ण  विश्व सन्नाटे में है. याद आई मुझे गणतंत्र दिवस, देवठान बुद्धपूर्निमा के दिन अलग अलग स्थानों पर आये भूकंप की विनाश लीलाए. उन्ही दिनों पर्यावरण दिवस पर लिखी एक रचना....

             एक शाश्वत सत्य 

सिर्फ एक पल
शायद एक पल  भी नहीं  
अभी हुई भी नहीं थी सहर 
बरपा ...धरा पर 
अकल्पित सा कहर
बदल  गया
देखते ही देखते
ईंट पथ्थरों में
सारा शहर ....

भयानक सन्नाटों को तोड़ती
खौफनाक चीखें 
तड़पते जिस्म बिलखती आँखें
हर आंसू तलाशता 
एक ही उत्तर
क्या हुआ .क्यों . हुआ
  कैसे  हुआ ये सब??????

टूटती है,
एक के बाद एक
सांसो की डोर ,
दहल जाता है पोर पोर
एक विनम्र श्र्ध्हांजलि के लिए
रो  पड़ती है
शीश झुकाकर ...... समूची कायनात

हर शख्स 
अपने आप में सहमा सिमटा सा
कब  ख़त्म हो जाय 
कौन जाने !
इस पल से उस पल का वास्ता,

 दिखला गया
वह एक पल 
एक शाश्वत सत्य,
क़ि जीवन नश्वर है
और छोड़ गया
आत्ममंथन के लिए
अनुत्तरित से कुछ प्रश्न 

सच तो है........
हम कब करते है
आत्ममंथन ,
प्रकृति क़ी खातिर   
कोई सहज
  या गंभीर चिंतन 
या क़ि मंत्रनाएं
क़ि प्रकृति माँ है
सहती आई है
अपनी छाती पर 
अनगिनत यंत्रनाएं.....

स्वार्थी बेटों क़ी 
क्षणभंगुर महत्वाकांषाओं क़ी
खातिर
लुटती है अपना सर्वस्व ,
और बदले में
कुछ नहीं मांगती 
एक आदर्श माँ क़ी तरह .

शायद इसीलिए
जब टूटती है,
तब नहीं देखती देश
चीन है, जापान है, या हिंदुस्तान 
नहीं देखती शहर 
जबलपुर है, लातूर है, या गढ़वाल 
नहीं जानती 
कहाँ हिन्दू है कहाँ मुसलमान
नहीं सोचती
महूरत,
कब पूर्णिमा है, कब देवठान..

 प्रकृति माँ है
कितनी चोटे सहे
कब तक सहे...
कभी तो चरमराएगी,
कभी तो रोएगी,
कभी टूटेगी.......

फिर कैसा शिकवा
कैसे प्रश्न
 कैसा गिला...?
जो बोया हमने
वही तो काटाsssss
    
 



   

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

                       एक अनवरत .......

सो गया ,
थकान से बेहाल सूरज
जागता रहा चाँद सारी रात..
उड़ चला 
समय का पंखी
क्षितिज को तलाशता.....

लम्हा दर लम्हा
यूँ ही सुबह से शाम होता रहा
मेरे अंतस में एक शून्य
न जाए कब से 
क्या खाकर 
पलता रहा

मेरे ही लहू से
सिंचित
अपनी ऑक्टोपस सी 
भुजाएं फ़ैलाता
शून्य से बरगद बनता रहा
 पूछता रहा
मुक्ति की परिभाषा

कब किस मोड़ पर शुरू हुआ 
अपने आपसे 
एक अघोषित 
मौन युद्ध 
कौन जाने.....

कदम लौटे ही थे
की सागर चीखा
का  य र  .........हारो मत
जरूरी नहीं, 
मोती सभीको मिले
एक अनवरत तलाश है जिंदगी
हो सकता है,
सवाल 
एक और गोते का हो.......

आँख भर आई
अनुभव की
कुलबुलाया
एक निशब्द मौन
क्या कह दिया सागर ने
आखिर क्यूँ?........

आसान नहीं रही कभी 
छोटे से वजूद और 
सागर की
अतल गहराइयाँ ......
जहाँ 
मुक्ति की छट पटा हट में
 हर गोते ने जिया है
तलाश का 
अनवरत संघर्ष.....

देखा है
कदम कदम पर 
एक पूरी  जमात होती है
मगरमच्छों की,
समूचा निगल जाने को आतुर
जाना है 
कितनी ही तेज हो 
दौड़ की रफ़्तार 
दूर ही रहता है क्षितिज
समूचे पंख फैलाकर भी 
नही होता मुठ्ठी में
कभी
कोई टुकड़ा आसमान.....

काश बोल पाती ,
अनुभव की आँख
की तलाश 
अनथक रहे न रहे,
मोती कहीं मिले न मिले
तोड़ कर रख देता है,
अंतस में किसी शून्य का
बरगद बन जाना...........

काश सुन पता सागर
कि नहीं चाहिए
मुक्ति की ऐसी परिभाषा
जिसका आसमान
खालीपन से लबालब हो  और 
छटपटाता रहे,
एक अंतहीन संघर्ष
ताउम्र .........
एक और गोते के सवाल पर.............