शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

कवि कलम और जनसंख्या

इक्कीसवीं सदी तक
आते आते
इकाई से अरबों /खरबों पर पहुंची
जनसँख्या
खटकने लगी है/नक़्शे की आँखों में,...........

ग्राफ में बढ़ता आंकड़ों का प्रतिशत
उधेड़ देता है
सीमाओ के बखिये,
गड्ड मड्ड हो जाते है
जोड़ बाकी गुना भाग सब.........

इसी संख्या से
गिनकर, चुनकर, नहीं........
बीनकर निकाले जाते है,
कुछ हीरे ,कुछ कंकड़ ,
बढ़ती हुई जनसँख्या नहीं होते वो........

हीरे,
स्तम्भ होते है नक़्शे के
या फिर / तुरुप के इक्के
बेशकीमतीं होते है कंकड़ भी,
वोटो की गुल्लक, शरणागत,अतिथि
या फिर अमानतें
जिनका सौदा हो सके.........

शेष जनसँख्या में
गुनहगार सा घूमता है/ बेचारा कवि
कलम की चुप्पी को सहलाता,
वह जानता है,
कलम साक्षर है
और निरक्षर भीड़
स्वतंत्रता के लिए
किसी आन्दोलन की
मोहताज़ नहीं होती........

हैरान परशान है
कुछ आंकडें
कवी की बेबसी
और
कलम की चुप्पी/ दोनों पर
चाहते है वे ,कि
कलम जागे,चीखे, उगले आग
इतनी की दहक उठे दसों दिशाए,
सुने_
हाँ...जनसंख्या है हम
लेकिन भीड़ नहीं है....
ताकत है नक़्शे की ,
हमारे ही बदोलत
सरताज बनते है हीरे
और ऐय्याशी करते है कंकड़ भी....

आंकड़े मौन रहें या वाचाल
विचलित नहीं होती
नक्कारखानें की दीवारें,
न ही निगल पाती है ऐसे सच
की नक़्शे में/शिखरों की निरंकुशता
जनसंख्या वृद्धि से
ज्यादा भयावह होती है..

कवि सचमुच बैचेन है
उसे
आकाशीय शक्तियों का नहीं,
कलम के
जागने का इंतजार है.........

मै
उसी भीड़ का एक हिस्सा हूँ
मगर,
तमाशबीन नहीं हूँ
मैंने जला दिए है,
उस परम शक्ति के दर पर
कुछ दिए,
टिमटिमाते ही सही
सूरज के प्रतिनिधि तो है ही.......

उंडेल दी है /सीढ़ियों पर मन्नतें
जुटा लिए है
प्रार्थना के शब्द,
रक्षा करो
हे विश्वनियन्ता ..........
उठाओ हाथ और आशीष दो,
की कवि और
उसकी कलम
जितना जी चाहे , सो ले ,
लेकिन उसकी ये चुप्पी
तूफ़ान से पहले की हो....

मंगलवार, 1 जून 2010

लिटिल चेम्प --- नेत्रहीन बालक दिवाकर के नाम एक पाती

उस दिन
सरगम की दुनिया में,
नन्हें सितारों के बीच,
जीत का परचम उठाये
मैंने
तुम्हे देखा था दिवाकर .....

सुरों में डूबते उतराते उसी गीत की मानिंद
काश
तुम भी देख पते
दिवाकर
मौसम की अदला बदली..........
रंगो की इन्द्रधनुषी छटा,
अपने हमनाम को
आकाश में चमकते....

देख पाते-
पापा की आँखों में
बेटे की मुस्कुराहतो पर
हजारों हज़ार जन्मों के
सार्थक होने का संतोष,
और
माँ के गालों पर
अविरत बहते ...निशब्द आंसू .....

तुम्हें उसी
सार्थक संतोष,निशब्द आंसू और
अगणित आशीषों की
सौगंध है दिवाकर,
कि तुम उन आँखों के लिए
कभी मत रोना
जो औरों के पास है....

क्योंकि जागती आँखों में भी
महसूस करने की
वो ताकत नहीं होती
जो तुम्हारी
सोयी आँखों में है..........

हाँ मुझे यकीन है दिवाकर
तुम बहुत बड़े बनोगे,
इतने कि-
तुम्हारी छाया में
खड़े रहेंगे,
हजारो हज़ार दिवाकर एक दिन,
तुम सुनोगे
अपने ही गीत
देख पाओगे
उनकी आँखों से
मौसम की अदला बदली.......

सोमवार, 31 मई 2010

मैं नदी हूँ

मैं नदी हूँ ..............
अनवरत प्रवाहित
एक नदी
जानती हूँ,
सीमाओं में बहना ,
और
वक्त पड़े तो
चट्टानों को काटकर
अपने रास्ते बना लेना भी..........

मैं समयदर्शिका हूँ ,
याद है मुझे
अपने परिभ्रमण की
दिशाएं ,
और तुम जानते हो
समय रुका नहीं है
कभी
किसी पल के लिए भी..........

मैं चिंगारी हूँ,
आता है मुझे
राख के ढेर में
दबे रहकर भी
अपनी आस्था को बचाए रखना,
आने वाले
किसी भी
ज्वालामुखी की खातिर ...........

मैं कंचन हूँ,
झेला है मैंने
तप कर
कुंदन बनने का संघर्ष ,
कुंदन
यूँ ही नहीं होता,
अनमोल या
चमक से परे ...........

मैं बेटी हूँ
जानती हूँ,
गिरते ही रहेंगे
अनगिनत उल्कापिंड ,
मेरे जन्म से
महाप्रयाण तक के
सफ़र में ,
लेकिन
आशीष है न बुजुर्गों के ,
झेलूंगी सहर्ष ,
जब तक हूँ ...............

मैं स्त्री हूँ ,
जननी भी
समेटे हूँ गर्भ में,
समूची सृष्टि ,
तुम मारना चाहते हो मुझे?
तो मारो....
लेकिन याद रखो -
जितना मुझे मारोगे
उतना खुद खत्म हो जाओगे .............


क्योंकि मैं
सृष्टि हूं,
मैं हूँ .....सृष्टि है .....
.सृष्टि है........तुम हो.....
तुम हो ......मैं हूँ....

मैं नदी हूं...जानती हूं, सीमाओं में बहना....

सुनो अहिल्या

इतिहास साक्षी है अहिल्या ,
बेगुनाह थीं तुम,
सहेज नहीं सकी
स्वयं को ,
अस्मिता पर लगते
ग्रहण से,
बना दी गयीं शिला,
और झेलती रही
बेजुबान होने  का दर्द
आजन्म .....निशब्द ...........

तुम्हे हैरानी होगी अहिल्या
गर मैं कहूँ,
कि तुम शिला बनी,
और तुमने
मुक्ति का इंतजार भी किया.........

हाँ अहिल्या,
शिला बनी तुम
क्योंकि तुम जानती थी
तुम्हारी दुनिया में
कहीं....कोई....रामहै..........
....
सुन सको-
तो सुनो अहिल्या..
इस युग में
आज भी कहीं कहीं,
अहिल्या
इन विषमताओं में
जीती है,
उम्र के
किसी भी मोड़ पर हो,
एक औरत होने का दुःख
सहती है...........

फिर वह
घर में हो, खेत में हो, या कि रेल में,
उम्र में
चार हो ,चौदह हो ,
चौबीस  या चवालीस,
अक्षत कुमारी हो
या सौभाग्य संस्कारित ,
आज भी
अस्मिता के संघर्ष  में
हज़ार हज़ार आंसू रोंती है,
आज भी
अपनी बेगुनाही के साक्ष्य
ढूँढती रह जाती है...................

वह चाहकर भी
शिला नहीं बनती है,
वह मुक्ति का इंतजार
नहीं करती है ,
वह जूझती है
ताउम्र...
खुद से, समाज से,
और शिला होती जा रही इस
समूची सभ्यता से..............

हाँ अहिल्या सुनो....
इक्कीसवी सदी में अहिल्या
शिला नहीं बनती है
इक्कीसवीं सदी में अहिल्या...
मुक्ति का
इंतज़ार नहीं करती है,
वो जानती है,
उसकी दुनिया में
कही... कोई ....राम...नहीं है................

रविवार, 30 मई 2010

सुनो गांधारी

सुनो गांधारी
-------------

सवाल ये नहीं है,
कि तुम गांधारी हो या
इन्साफ की देवी,
सवाल ये है.....
की तुमने
दृष्टि पर पट्टी
क्यों बांधी?

ना .....कुतर्क मत करना.....
बेमानी होंगे मेरे लिए,
क्योंकि मैं
इक्कीसवीं सदी हूँ,
और
यहाँ तक आते आते,
बहुत पीछे छोड़ आई हूँ,
अकर्मण्यता ...,अन्धविश्वास,
पाखंड ,
रुढियों की जकड़ने ,
और बहुत कुछ......

 मानती भी हूँ कि_
दृष्टि के बिना
नितांत असंभव होते है
सृष्टि के नियमन ........

मैं नहीं पूछूगी
तुमसे
तुम्हारा दृष्टिकोण,
समझती हूँ
बंधक दृष्टी के
कोण नहीं होते.......

काश......
समझ पाती तुम,
कि दृष्टिहीन ममत्व

पुत्रमोह को
दुर्योधन बना देता है,
धर्मकांटे को ठेंगा दिखाकर
अन्याय का पलड़ा
अक्सर न्याय पर
भारी पड़ जाता है,
दुर्भाग्य  का ठीकरा
उपरवाले के सर फोड़
निर्दोष का आंसू
जार जार रोता है,
और
कालचक्र
इन सबका हिसाब
मुझसे मांगता है......
बोलो क्या जवाब दूँ...............

मैं इक्कीसवीं सदी,
अपना अक्स
तुम्हारी आँखों में
देखना चाहती हूँ,
इसलिए
तुम्हे खोलनी होंगी ऑंखें,
हटाने होंगे
दृष्टी पर पड़े आवरण,
और देखने होंगे
तुम्हारी देहरी पर
सिसकती द्रोपदियों के आंसू,
न्याय कि गुहार में फैले
उनके हाथ
और महसूस करनी होगी
स्वाभिमान से

जीने का हक़ मांगती
एक औरत की पीड़ा........

मुझे यकीन है,
तुम्हारी दिव्य दृष्टी में
अंधकार से प्रतिकार की
क्षमता का
वो तेज़........
आज भी जिन्दा है,
बिलकुल वैसा ही..
तब
यदि उनमे
इंसान को वज्र बनाने का
सामर्थ्य था,
तो  आज  इन पाषणों में
संवेदना प्रवाहन की
क्षमता भी होगी................

क्योंकि
ये जीवन का कुरुक्षेत्र है गांधारी,
और मैं...
इक्कीसवीं सदी,
कालचक्र के
हर प्रश्न पर निरुत्तर..................


 लेकिन हर कदम पर
तुम्हारे साथ
तुम्हारे पीछे
अपने
शाश्वत प्रश्न के
किसी
शाश्वत उत्तर को तलाशती
कि तुमने
दृष्टि पर पट्टी क्यों बाँधी ?