सूरज बहुत खुश था.....
नदी.....हिलोरें लेती हुई
और रेत.....
ओस कणों में नहाई सी.........
नहाकर निकली थी तीन पीढियां
पहली पीढ़ी.......रेत पर
अपने पैरों के निशाँ छोड़ती हुई
दूसरी पीढ़ी.....पीछे पीछे
उन्ही पर
अपने पदचिन्ह थोपती हुई सी
और तीसरी.......
अपनी ही मस्ती में मस्त
उछलती कूदती
चीखती, चिल्लाती
सारे के सारे निशान
अपने पैरों तले रोंदती
धूल में उडाती.....मिटाती.....
सूरज......अचानक उदास दिखा
नदी....एकदम शांत.....
और रेत......
कुन्दा जी कविता बहुत सुन्दर है । हाँ नई पीढी के लिये कुछ नाउम्मीदी का भाव महसूस हो रहा है ।
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