रविवार, 29 अप्रैल 2012

घर

आसमान तो पहले ही दूर था,
अब पेरों तले जमीन भी जाती रही ,
फूलों के
हंसी की कौन कहे,
बात तक नहीं करते सीधे मुंह
हाँ.....ऐसे में ,
अनचाहे उग आये केक्टस
करते रहतें है पहरेदारी
जाते समय कहीं
पुकारते है निशब्द ....
सुनो...शाम को लौट आना जल्दी
.........
*क्यूँ* जैसा कोई प्रश्न
नहीं उछालाती मैं,
जानती हूँ ,....
प्रत्युत्तर वही होगा..
.हमेशा की मानिंद
*घर तो घर ही होता है न सखी ......
लौट आना......जरूर से "

और मैं!!!!
सचमुच लौट आती हूं..
ये जानते हुए भी
कि दीवारों के माने
घर नहीं होता ....
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