रविवार, 29 अप्रैल 2012

गौरैय्या फिर आना तुम

सुबह सवेरे सूरज से पहले 
अलख जगाती चहकी तुम 
तो लगा,
जैसे बचपन का सपना हो कोई 
लेकिन सचमुच थी तुम 
बालकनी की मुडेर पर
फुदक रही थी 
दाना पानी भरे सकोरों के आसपास 
फिर तुमने उसमे डूबकर पंख फड फडाये 
तो फुहारों में
समंदर भर नहा ली मै...
चोंच भर दाना ले उड़ीं
तो जीम ली मै..... छप्पनभोग ...

आज तुम्हे इसी सकोरे भर पानी
और चोंच भर दानो की सौगंघ है गौरिय्या
तुम कभी
उन परिंदों की मानिंद मत जाना
जो अपने हिस्से का दाना पानी चुग कर
उड़ जाते है
सात समंदर पार
और इंतज़ार मै झुर्रिया जाती है
देहलीज़ की शामें ..........

वादा करो गौरैय्या
तुम कल फिर आओगी
मैंने ताज़ा पानी भर दिया है सकोरो मै
अंजुली भर धान भी
तुम जरुर आना ...वैसी ही फुदकती हुई .
अलसुबह अलख जगाती.......

घर

आसमान तो पहले ही दूर था,
अब पेरों तले जमीन भी जाती रही ,
फूलों के
हंसी की कौन कहे,
बात तक नहीं करते सीधे मुंह
हाँ.....ऐसे में ,
अनचाहे उग आये केक्टस
करते रहतें है पहरेदारी
जाते समय कहीं
पुकारते है निशब्द ....
सुनो...शाम को लौट आना जल्दी
.........
*क्यूँ* जैसा कोई प्रश्न
नहीं उछालाती मैं,
जानती हूँ ,....
प्रत्युत्तर वही होगा..
.हमेशा की मानिंद
*घर तो घर ही होता है न सखी ......
लौट आना......जरूर से "

और मैं!!!!
सचमुच लौट आती हूं..
ये जानते हुए भी
कि दीवारों के माने
घर नहीं होता ....
44