सोमवार, 16 सितंबर 2013

पहचान

खुद की पहचान तक नही थी
उन दिनों
चलते थे साथ साथ
कुछ खूबसूरत लम्हे
हर पल चहकती थी खुशियाँ
खिलखिलाती रहती
उम्मीदों से भरी मुठ्ठिया
रग रग में दौड़ता
चाँद सितारे तोड़ने का हौसला भी ----
हाँ----सचमुच--
-आसमान थी मै------

और अचानक एक दिन
मिल गयी एक पहचान
जब माँ ने बताया
कि मै --बेटी हूं
और बहुत मोटी होती है,
वर्जनाओं कि दीवारें--------
तब सिहर उठी मै -------

ये कैसी पहचान?
सारी खुशियाँ, सारे सपने ,
सिहर गए
अथाह जलराशि बन
समां गए मेरे भीतर,
और मै ----- सिकुड़कर
धरती बन गयी
हाँ---अब धरती ही हूं मै -------


मेरे अंतस क समन्दर 
सींचना चाहता है
मेरे सीने पर उग आई हरियाली 
लेकिन कुछ मरी हुई आत्माएँ 
घूमती है आस पास 
छैनी हथौड़े कुल्हाड़ी
आरियो के भेंस  मे
काट देती है उन्हे गाहे ब गाहे
 बो देतीं है विषबीज
और फिर
ये मेरा वो तुम्हारा करतीं
उग आती  है सरहदें
तब सचमुच
बहुत तकलीफदेह होत है
धरती के लिये
अंतस के सिकुड़ते समंदर
और सीने पर उग आई
सरहदों के बावजूद
अपनी धुरी पर अनवरत घूमते रहना। ....... 

घर

आसमान तो पहले ही दूर था,
अब पेरों तले जमीन भी जाती रही ,
फूलों के 
हंसी की कौन कहे,
बात तक नहीं करते सीधे मुंह 
हाँ.....ऐसे में ,
अनचाहे उग आये केक्टस 
करते रहतें है पहरेदारी
जाते समय कहीं 
पुकारते है निशब्द ....
सुनो...शाम को लौट आना जल्दी
.........
*क्यूँ* जैसा कोई प्रश्न
नहीं उछालाती मैं,
जानती हूँ ,....
प्रत्युत्तर वही होगा..
.हमेशा की मानिंद
*घर तो घर ही होता है न सखी ......
लौट आना......जरूर से "

और मैं!!!!
सचमुच लौट आती हूं..
ये जानते हुए भी
कि दीवारों के माने
घर नहीं होता ....

फैसला 13-09-2013

सच कहू दामिनी
संतुष्ट तो हूँ मगर खुश नहीं शायद
इसलिए कि तुम नहीं हो यहाँ
कि जीते जी देखती उन्हें
रोते, गिडगिडाते,
या कि रहम कि भीख मांगते
जिनके सामने तार-तार होते
जार- जार रोई होगी तुम उस दिन
इसलिए भी कि -
एक साथ चार-चार माताओं की
कोख शर्मिंदा हुई आज
अपने ही कुकर्मी बेटो से मिले
शर्मनाक प्रतिफल पर ----
कुलदीपक की खातिर
ईश्वर के दर पर
कितनी मन्नते मांगी होगी
,कितने व्रत कितनी पूजाएँ
पूरे नौ माह--
जिन्हें कोख में लिए लिए
सपनों के आकाश में घूमती रही
मन से भी फूली फूली
जिनके पैदा होने पर
मिठाइयाँ बांटी, गीत गाये
कितनी ही बार
अपने हिस्से का कौर खिला,
भूखी सोयी होंगी
लोरियां गाकर
उन्हें सुलाती रही होंगी
आज उन्ही बेटो ने
नींद खत्म कर दी
शेष उम्र की भी

सच में दुखी हु दामिनी
प्रार्थना भी करती हू ईश्वर से ,
इन माताओं को अगले जन्म
सिर्फ बेटिया देना ..........
या कि रहने देना यूँ ही 
बे --औ --ला---द---

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उसी वक्त (कृष्णजन्माष्टमी के उपलक्ष में )

सुन सुन कर हैरान हूँ कान्हा ,
तुम उसी वक्त दौड़कर आये
जब द्रोपदी ने 
आर्त स्वर में पुकारा तुम्हे,
चीर बढाकर 
बचा लिया
अपनी बहन का स्वाभिमान ,
तुम्हे शतशः नमन ----
-
लेकिन
 सवाल तो बनता है न कान्हा 
आखिर  सर्वेश्वर थे तुम ,
उसी वक्त यदि
द्रोपदी का चीर बढ़ा सकते थे---तो 
उसी वक्त दुशासन के
हाथ भी तो काट सकते थे ना ---जड़ से !!!!!-------