गुरुवार, 23 मई 2013

कविता --------- सच कहना

- सच कहना 

सुनो सखी...
मै जानती हूँ 
तुम्हारा गुनाह यदि कोई था,
तो सिर्फ यही ,
कि स्त्री होकर भी 
मात्र देह होने से इनकार किया तुमने .....
और मुठ्ठियाँ भींचकर 
लांघ ली देहलीज ........

तब लगा था मुझे, कि
यकीनन सूरज बनोगी तुम, एक दिन,
एक दिन करोगी .
.क्षितिज पर हस्ताक्षर
और फैलाओगी किरणों का उजाला
कुछ और अपने जैसों की खातिर

लेकिन नियति का लिखा
कब कौन पढ़ पाया सखी,
जुगनुओं ने
भटका दिया तुम्हे,
हवाओं ने
समेट लिए तुम्हारे आंसू,
नकाबपोश खुशबुओं ने
भींच लिया आगोश में......

और तुम......
उलझती ही चली गयीं ...
नारी मुक्ति का ककहरा सीखतीं \ रटती ..
.देह के
नवीनतम संसकरणों की परिभाषाओं में ...

जानती हूँ सखी,
आज तुम्हारे पैर जमीन पर नहीं है ...
तुम किसी गुडिया सी सजी धजी ,
किसी शोपिंग काम्प्लेक्स के ,
खूबसूरत शो केस में...
.गर्वोन्नत ...आदमकद खड़ी हो ...

सखी, औरत हूँ न....
ईर्ष्या भी होती है तुमसे
लेकिन एक बार,
सिर्फ एक बार
दिल पर हाथ रख कर
सच कहना सखी ....
कि -
स्त्री मुक्ति का परचम लहराती...
तुम्हारी ये उन्मुक्त जीवन यात्रा
रही तो........ देह से देह तक ही न.?....
फिर?......... पाया क्या तुमने?

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के तीन बंदरो को समर्पित रचना ( २ अक्तूबर पर विशेष)


तुम्हारी धरोहर 

तुम्हारी धरोहर 
तुम्हारी स्मृतियाँ.......
कौन नहीं सहेजना चाहेगा बापू !
फिर वह ऐनक हो छड़ी हो या घडी,
जिनसे जुड़े थे तुम ताउम्र, 
और तुम्हारे साथ
हमारी स्वाधीनता का इतिहास 
जाहिर है, आज अमूल्य है , वे धरोहरें
सजी रहेंगी...खूबसूरत अलमारियो में
"एक थे बापू" कहती ;हुई,
मुझे माफ़ करना बापू
विजय माल्या नहीं हूँ मैं ,
न ही ऐसी किसी नीलामी में
बोली लगाने का सामर्थ्य है मुझमें
यदि सम्भव हो पाता....तो..ले जाती ;मैं...
तुम्हारी उस त्रिमूर्ति को
जिसे अहिंसा का प्रतीक कहकर
हमें सौंपा तुमने
;और वर्तमान ने
बदल कर रख दिए उनके माने ...
उन्हें ही ले जाती मैं,
हटा देती उनके हाथ
मुंह ,कान और आँखों पर रखे हुए
उन्हें डांटती, चीखती , ,समझाती ;भी
की अहिंसा के माने चुप्पी नहीं होते
और सामर्थ्य को विराम देना
गुलामी से कम नहीं आँका जाता कभी भी....
इससे तो अच्छा है..
वक्त के साथ बदलना सीखो,
और कुछ ;नहीं तो घूम आओ....उन सरहदों पर
जहाँ घर परिवार को छोड़कर
तैनात है हमारे जवान,
जिसकी स्वाधीनता के लिए
शहीद हुआ वह महात्मा ....
खड़े रहो वही कुछ पल
कहीं दिखें तो नोंच लो उन आँखों को
जो गाहे बगाहे उठती है सरहदों पर
सुनो.....कोई आतंकी आहट तो नहीं!!
हो तो जवाब दो फ़ौरन
जब शांती महसूस करो तो रुको
लगा लो, जो चाहो....तिलक, टोपी, पगड़ी
पकड़ लो ...एक दूसरे का हाथ
खोलो मुहं...और गूंजा दो आसमान
भारत ...माता...की...जय......
तुम्हारी स्मृतियाँ.......

२१ वीं सदी क़ी लड़की

२१ वीं सदी क़ी लड़की 

युग बीते, सदियाँ बीतीं
सूरज देता रहा पृथ्वी को ---धूप---गर्मी---प्रकाश
हवाओं ने भी सांसे देकर,थाम रखी 
सृष्टि की जीवन डोर 
कभी किसी ने नहीं कोसा उन्हें
फिर भी क्यूँ? आखिर
क्यूँ सरेआम दोषारोपण कराती है उन पर
२१ वीं सदी की --नकाबपोश लड़की........!!

सूरज निकलने से पहले या कि
छिप जाने के बाद भी,
हवाओं के चलने या कि रुक जाने के बाद भी,
सुबह से शाम तलक
डरी सहमी सी खुद को छिपाती है ,
जान पहचान वालों से, रिश्तेदारों से ,
रिश्तेदारों के रिश्तेदारों से
या कौन जाने अपने आप से ही .............

ना जाने किससे डरती है
पहचाने जाने के संकट से अनवरत जूझती ,
२१ वीं सदी की नकाबपोश
डरपोक सी लड़की ---------

सचमुच हैरान, परेशान है सूरज,
हवा, पृथ्वी भी हैरान है,
कि पहचान बनाने के संघर्ष से जूझती
अरबों खरबो क़ी इस भीड़ में,
अपनी कोई पहचान कैसे बना पाएगी
नकाब ओढ़कर
अपनी पहचान छिपाती
२१ वीं सदी क़ी नकाबपोश लड़की.........!!

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