थकान से बेहाल सूरज
जागता रहा चाँद सारी रात..
उड़ चला
समय का पंखी
क्षितिज को तलाशता.....
लम्हा दर लम्हा
यूँ ही सुबह से शाम होता रहा
मेरे अंतस में एक शून्य
न जाए कब से
क्या खाकर
पलता रहा
मेरे ही लहू से
सिंचित
अपनी ऑक्टोपस सी
भुजाएं फ़ैलाता
शून्य से बरगद बनता रहा
पूछता रहा
मुक्ति की परिभाषा
कब किस मोड़ पर शुरू हुआ
अपने आपसे
एक अघोषित
मौन युद्ध
कौन जाने.....
कदम लौटे ही थे
की सागर चीखा
का य र .........हारो मत
जरूरी नहीं,
मोती सभीको मिले
एक अनवरत तलाश है जिंदगी
हो सकता है,
सवाल
एक और गोते का हो.......
आँख भर आई
अनुभव की
कुलबुलाया
एक निशब्द मौन
क्या कह दिया सागर ने
आखिर क्यूँ?........
आसान नहीं रही कभी
छोटे से वजूद और
सागर की
अतल गहराइयाँ ......
जहाँ
मुक्ति की छट पटा हट में
हर गोते ने जिया है
तलाश का
अनवरत संघर्ष.....
देखा है
कदम कदम पर
एक पूरी जमात होती है
मगरमच्छों की,
समूचा निगल जाने को आतुर
जाना है
कितनी ही तेज हो
दौड़ की रफ़्तार
दूर ही रहता है क्षितिज
समूचे पंख फैलाकर भी
नही होता मुठ्ठी में
कभी
कोई टुकड़ा आसमान.....
काश बोल पाती ,
अनुभव की आँख
की तलाश
अनथक रहे न रहे,
मोती कहीं मिले न मिले
तोड़ कर रख देता है,
अंतस में किसी शून्य का
बरगद बन जाना...........
काश सुन पता सागर
कि नहीं चाहिए
मुक्ति की ऐसी परिभाषा
जिसका आसमान
खालीपन से लबालब हो और
छटपटाता रहे,
एक अंतहीन संघर्ष
ताउम्र .........
एक और गोते के सवाल पर.............