रविवार, 30 मई 2010

सुनो गांधारी

सुनो गांधारी
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सवाल ये नहीं है,
कि तुम गांधारी हो या
इन्साफ की देवी,
सवाल ये है.....
की तुमने
दृष्टि पर पट्टी
क्यों बांधी?

ना .....कुतर्क मत करना.....
बेमानी होंगे मेरे लिए,
क्योंकि मैं
इक्कीसवीं सदी हूँ,
और
यहाँ तक आते आते,
बहुत पीछे छोड़ आई हूँ,
अकर्मण्यता ...,अन्धविश्वास,
पाखंड ,
रुढियों की जकड़ने ,
और बहुत कुछ......

 मानती भी हूँ कि_
दृष्टि के बिना
नितांत असंभव होते है
सृष्टि के नियमन ........

मैं नहीं पूछूगी
तुमसे
तुम्हारा दृष्टिकोण,
समझती हूँ
बंधक दृष्टी के
कोण नहीं होते.......

काश......
समझ पाती तुम,
कि दृष्टिहीन ममत्व

पुत्रमोह को
दुर्योधन बना देता है,
धर्मकांटे को ठेंगा दिखाकर
अन्याय का पलड़ा
अक्सर न्याय पर
भारी पड़ जाता है,
दुर्भाग्य  का ठीकरा
उपरवाले के सर फोड़
निर्दोष का आंसू
जार जार रोता है,
और
कालचक्र
इन सबका हिसाब
मुझसे मांगता है......
बोलो क्या जवाब दूँ...............

मैं इक्कीसवीं सदी,
अपना अक्स
तुम्हारी आँखों में
देखना चाहती हूँ,
इसलिए
तुम्हे खोलनी होंगी ऑंखें,
हटाने होंगे
दृष्टी पर पड़े आवरण,
और देखने होंगे
तुम्हारी देहरी पर
सिसकती द्रोपदियों के आंसू,
न्याय कि गुहार में फैले
उनके हाथ
और महसूस करनी होगी
स्वाभिमान से

जीने का हक़ मांगती
एक औरत की पीड़ा........

मुझे यकीन है,
तुम्हारी दिव्य दृष्टी में
अंधकार से प्रतिकार की
क्षमता का
वो तेज़........
आज भी जिन्दा है,
बिलकुल वैसा ही..
तब
यदि उनमे
इंसान को वज्र बनाने का
सामर्थ्य था,
तो  आज  इन पाषणों में
संवेदना प्रवाहन की
क्षमता भी होगी................

क्योंकि
ये जीवन का कुरुक्षेत्र है गांधारी,
और मैं...
इक्कीसवीं सदी,
कालचक्र के
हर प्रश्न पर निरुत्तर..................


 लेकिन हर कदम पर
तुम्हारे साथ
तुम्हारे पीछे
अपने
शाश्वत प्रश्न के
किसी
शाश्वत उत्तर को तलाशती
कि तुमने
दृष्टि पर पट्टी क्यों बाँधी ?

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