वह समंदर था..
अथाह...अनन्त...
जिन्दगी तलाशती रही..खुद को .
ताउम्र
सीखती रही तैरना ..डूबते उतराते..
हंसती रही,
तट पर खडी नौकाये
"आवाज तो दो" के अंदाज में ..
मैंने नहीं देखा उन्हें..ज़ंजीर से बंधे ..
न ही पुकारा कभी
एक कोशिश....
किनारा कहीं तो होगा न.....
काफी होती है, विध्वंस के लिए
एक लहर,
मैंने नहीं बनाये..किनारे पर घरोंदे,
न ही लिखा..रेत पर कोई नाम ,
फिसल जायेंगे सोचकर नहीं भरे
अंजुली में सपने......
कहा था, अभावों के रेगिस्तान ने,
"महज बुत है वहां "...तराशे हुए से,
मैंने नहीं मांगी.
सीढ़ियों पर बैठकर
कोई मन्नत .................
हर कोई बिखर जाता है..
अपनो से टूटकर ....
मैंने नहीं तोडा
वो खिलखिलाता गुलाब ...
फिर भी हैरान हूँ
देख रही हूँ ..
सफ़र के इस मुकाम पर
चुपचाप सिसकता एक सिफ़र...
उपलब्धियों का शेष था शायद...
या मेरा ही कोई अख्स..
कौन जाने.........
लेकिन कोई यूँ ही तो नहीं रोता न...
कहीं कुछ तो था जो टूटा,
कहीं कोई तो था, जो छूटा..
एक अहसास जो सालता रहा
हर पल
एक अनाम अंतर्द्वंद
"गलत क्या रहा"
मेरे अतीत,वर्तमान से
भविष्य तक उलीचता रहा...
चीख कर पूछा था...गुजरते लम्हों से
रुको...जवाब दो...गलत क्या रहा?
निशब्द हंसा था....निस्तब्ध अंतराल
हटो...रास्ता छोडो...
ढलान पर कुछ नहीं रुकता....
न मै...न तुम...न समय....
कहकर....
उम्र का सफ़र चलता रहा
अंतर्द्वंद भटकता रहा.....दिशाहीन ...
वह समंदर था...अनवरत बहता रहा....
समय का समंदर
अथाह...अनन्त...अनुत्तरित. .........