गुरुवार, 23 मई 2013

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के तीन बंदरो को समर्पित रचना ( २ अक्तूबर पर विशेष)


तुम्हारी धरोहर 

तुम्हारी धरोहर 
तुम्हारी स्मृतियाँ.......
कौन नहीं सहेजना चाहेगा बापू !
फिर वह ऐनक हो छड़ी हो या घडी,
जिनसे जुड़े थे तुम ताउम्र, 
और तुम्हारे साथ
हमारी स्वाधीनता का इतिहास 
जाहिर है, आज अमूल्य है , वे धरोहरें
सजी रहेंगी...खूबसूरत अलमारियो में
"एक थे बापू" कहती ;हुई,
मुझे माफ़ करना बापू
विजय माल्या नहीं हूँ मैं ,
न ही ऐसी किसी नीलामी में
बोली लगाने का सामर्थ्य है मुझमें
यदि सम्भव हो पाता....तो..ले जाती ;मैं...
तुम्हारी उस त्रिमूर्ति को
जिसे अहिंसा का प्रतीक कहकर
हमें सौंपा तुमने
;और वर्तमान ने
बदल कर रख दिए उनके माने ...
उन्हें ही ले जाती मैं,
हटा देती उनके हाथ
मुंह ,कान और आँखों पर रखे हुए
उन्हें डांटती, चीखती , ,समझाती ;भी
की अहिंसा के माने चुप्पी नहीं होते
और सामर्थ्य को विराम देना
गुलामी से कम नहीं आँका जाता कभी भी....
इससे तो अच्छा है..
वक्त के साथ बदलना सीखो,
और कुछ ;नहीं तो घूम आओ....उन सरहदों पर
जहाँ घर परिवार को छोड़कर
तैनात है हमारे जवान,
जिसकी स्वाधीनता के लिए
शहीद हुआ वह महात्मा ....
खड़े रहो वही कुछ पल
कहीं दिखें तो नोंच लो उन आँखों को
जो गाहे बगाहे उठती है सरहदों पर
सुनो.....कोई आतंकी आहट तो नहीं!!
हो तो जवाब दो फ़ौरन
जब शांती महसूस करो तो रुको
लगा लो, जो चाहो....तिलक, टोपी, पगड़ी
पकड़ लो ...एक दूसरे का हाथ
खोलो मुहं...और गूंजा दो आसमान
भारत ...माता...की...जय......
तुम्हारी स्मृतियाँ.......

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